हां, मां अब भी डांटती है। वो अब भी पूछती है ‘शाम ज्यादा हो गई है घर कब आओगे’? वो अब भी कहती है ज्यादा देर तक बाहर नहीं रहना। फर्क सिर्फ इतना है कि मां की डांट अब लड़कपन के खेलों के लिए नहीं बल्कि जिंदगी के उन मुश्किल भरी राहों पर संभल कर चलने के लिए मिलती है जिनपर वो आपकी सलामती के लिए हर वक्त तत्पर रहती हैं। फिलहाल मां के लाड और दुलार की बात चली है तो यह सबसे सही वक्त है बचपन के उन खेलों को याद करने का जो हमने कभी अपने घर-आंगन में खेले हैं। बिहार मीडिया डॉट कॉम बचपन की उन खेलों की यादों को आज आपके लिए संजो कर लाया है जो खेल बिहार की पहचान भी हैं। कहा जाए तो हम और सिर्फ हम ही हैं इन खेलों को सिकंदर।
डेंगा-पानी :
जमीन से किसी ऊंचे स्थान (डेंगा) पर खड़े हो जाना और फिर अपने जमीन (पानी) पर खड़े अपने साथी से बच कर बार-बार अपना स्थान बदलना। घर से बाहर खेले जाने वाले खेलों में ‘डेंगा-पानी’ सबसे मशहूर खेल है। इस खेल से जुड़ी कई दिलचस्प कहानियां हैं। इसमें सभी प्रतिभागी डेंगा पर होते हैं और मगर(मगरमच्छ) पानी में। खास बात यह भी कि सभी प्रतिभागियों को जल्दी से जल्दी अपना डेंगा बदलना होता है और इसके लिए वो मगर का ध्यान ‘मैं तुम्हारे पानी में हूं मुझे पकड़ो’ कह कर भटकाते हैं। नियम के मुताबिक स्थान बदलने के दौरान अगर आपके साथी यानी (मगरमच्छ) ने आपको पकड़ लिया तो आप खेल से बाहर हो जाएंगे।
लुका छिपी (Hide and Seek):
इस खेल का नाम लेते ही हम अपने बचपन में चले जाते हैं। यह वो खेल है जिसे बिहारी बच्चे तीन या चार साल की उम्र से ही अपने घरों में खेलना शुरू कर देते हैं। इस खेल को बच्चे अपनी मां, बाप, दादा या फिर दादी के साथ भी खेलते हैं। हथेलियों से आंखों को ढंक कर बच्चे अपनी मां से जिद करते हैं कि वो अपनी आंखें बंद करें और फिर जब वो उनकी आंखों से दूर हो जाएं तो उनकी तलाश करें।