मधुबनी पेंटिंग| आज किसी परिचय का मोहताज नहीं है| 60 सालों का समृद्ध इतिहास| शुरुआती दौर में मिथिला इलाके में दीवारों पर उकेरी जाने वाली कलाकृति ने ही आज मधुबनी पेंटिंग का रुप ले लिया | पिछले साठ सालों से दीवारों और घरों में कूचियों से बनाए गए चित्र आज कैनवास पर उतर गए और इसकी प्रसिद्धि देश से लेकर विदेशों तक फैल गई| मिट्टी की महक से निकलकर ये कृतियां आज कपड़ों और मिट्टी के बर्तनों तक पहुंच गई है| मधुबनी की पेंटिंग की अद्भुत कृतियां देखनी है तो चले आइए जितवारपुर गांव| गांव के हरेक घर की दीवारों पर उकेरी गई ये अनमोल कृतियां आपका मन मोह लेंगी| कोई घर ऐसा नहीं कि जिसमें पेंटिंग न होती हों| इसी जिले के तीन लोगों को भारत सरकार का सम्मान पद्मश्री मिलना, ये दर्शाता है कि लोग इस कलाकृति को सहेजने और उसे आगे बढ़ाने के लिए कितने गंभीर हैं| आज मधुबनी पेंटिंग सिर्फ मधुबनी की पहचान ही नहीं, बल्कि वहां की संस्कृति का हिस्सा है| इस पेंटिंग से आज करीब 40 हजार लोग जुड़े हुए हैं| उनके लिए ये रोजगार का साधन है| पेंटिंग से जुड़े लोग देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में जाकर भी काम कर रहे हैं| पेंटिंग करने वालों की ये हाथों की महारत ही है कि कई लोगों को तो दस-दस बार विदेशों में जाकर अपना अद्भुत हुनर दिखाने का मौका मिल चुका हैं| लेकिन दुख की बात ये है कि उनकी आर्थिक हालत में कोई ज्यादा सुधार नहीं आया| इनसे हुनर सीख देश में कई लोगों की गिनती श्रेष्ठ कलाकृति बनाने वालों में हो गई, लेकिन हुनर सिखाने वाले आज भी अपने हुनर की सही पहचान नहीं मिलने के चलते खफा हैं| अबतक इन कालाकारों को जो मदद मिली है वो एनजीओ की तरफ से ही मिली है| ये संस्थान उन्हें एक मंच और पहचान तो देते है, लेकिन आर्थिक तौर पर उनकी मदद नहीं कर पाते,जिनके ये हकदार हैं| सबसे दुखद बात ये है कि देश में ऐसा कोई फोरम नहीं या फिर राज्य सरकार ने अभी तक कोई ऐसा मंच तैयार नहीं किया जहां से इन्हें खुद की पहचान मिल सके| सबसे ज्यादा जरुरत है इन्हें बाजार से जोड़ने की तभी इनके हुनर का लाभ इन्हें आर्थिक तौर पर मिल पाएगा जिसके ये हकदार हैं| इन्हें मलाल भी इसी बात का है कि उनकी कलाकृतियों पर तालियां तो खूब बजती हैं लेकिन भला तालियां बजने से पेट की आग शांत नहीं की जा सकती| इन्हें चाहिए तो बस खरीदार जो इनके हुनर की कीमत इन्हें दे सके| कई सालों से इस काम में लगे कुछ लोग शिकायत करते हैं कि सरकार की तरफ से कोई मदद नहीं मिलने के चलते बिचौलिए हावी हो गए हैं जो इनकी बनायी पेंटिंग से खुद की कमाई तो भरपूर करते हैं लेकिन इन्हें उनका वाजिब दाम नहीं मिल पाता|
लेकिन पेंटिंग के लिए कुछ लोगों को मिले राष्ट्रीय अवार्ड ने इनकी मदद की,पुरस्कार से सम्मानित होने के बाद कई हुनरमंदों की पहचान होने लगी और उन्हें काम भी मिलने लगा है| पद्मश्री बौआ देवी कहती हैं कि पहले वो कैनवस पर काम करती थीं उन्हें कोई काम नहीं मिलता था, लेकिन जब अवार्ड मिले तो लोगों ने काम देना शुरु किया| वो कहती हैं कि दस से अधिक बार वो विदेशों की यात्राएं कर चुकी हैं, अपना हुनर दिखा चुकी हैं, लेकिन विदेश जाने के बाद भी आर्थिक हालात में कोई ज्यादा परिवर्तन नहीं आया|
जितवारपुर में मधुबनी पेंटिंग से सैंकड़ों लोग जुड़े हैं|उन्हीं में से एक राज्य सरकार और कर्नाटक ललित कला से अवार्ड पाए कलाकार श्रवण पासवान हैं| श्रवण बताते हैं कि जिनकी पहुंच बाहर तक है उन्हें तो काम और उसका वाजिब दाम मिल जाता है, लेकिन सामान्य कलाकारों के सामने समस्या जस की तस है| वो कहते हैं कि गांव में बिचौलिए हावी हैं और 400 से 500 रुपए में कलाकारों से खरीदी गई पेंटिंग को बाहर 2500 से लेकर 10000 रुपए तक वो बेचते हैं| जिससे वो तो मालामाल हो रहे हैं लेकिन जिसने उसे बनाया उसे उसका वाजिब दाम नहीं मिल पाता|
खरीद बिक्री का नहीं है कोई इंतजाम
मधुबनी पेंटिंग के जानकार विश्वंभर झा बताते हैं कि पेंटिंग की खरीद-बिक्री के लिए अबतक कोई ठोस पहल नहीं की गई| वो बताते हैं कि मधुबनी पेंटिंग का कारोबार करीब 20 करोड़ का है और अगर इंतजाम बेहतर हो जाएं तो ये आंकड़ा 50 करोड़ के पार पहुंच जाएगा| साल 1976 में हस्तकला ऑफिस खोला गया पहले वो सीधे कलाकार से पेंटिंग खरीदते थे पर अब यहां बिचौलिए हावी हो गए| इसके अलावा पटना में कई संस्थाएं काम कर रही हैं लेकिन वो सीधे यहां आकर पेंटिंग नहीं खरीदते इसलिए कलाकारों को उनका उचित लाभ नहीं मिल पाता है|