अगर आप पुरानी चीजों को पसंद करते हैं या जिंदगी में सिंपल चीजें आपके लिए ज्यादा मैटर करती हैं और आप-आप छोटी चीजों में भी खुशियां ढूंढ लेते होंगे। एक दौर था जब सिनेमा का भी विंटेज फील हुआ करता था। उस वक्त शायद आपका जन्म भी न हुआ हो लेकिन ब्लैक ऐंड वाइट फिल्मों के साथ गहरे कनेक्शन का एहसास हो ही जाता है। उस वक्त ग्राफिक्स, वीएफएक्स जैसी चीजें नहीं होती थीं, न ही बड़े-बड़े स्टंट लेकिन मजबूत कहानियां, बेहतरीन म्यूजिक और गजब की ऐक्टिंग लोगों के दिल और दिमाग तक पहुंचती थी। अगर आप भी उस दौर को पसंद करते हैं तो आपको ये 11 हिंदी फिल्में जरूर देखनी चाहिए जो दशकों बाद भी प्रासंगिक हैं और आज भी हर किसी को इम्प्रेस कर देती हैं…
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आवारा (1953)
फिल्म में पृथ्वीराज कपूर, नरगिस, राज कपूर जैसे ऐक्टर्स नजर आए थे। बहुत से लोगों को यह बात नहीं मालूम होगी कि ‘आवारा’ 1953 में प्रतिष्ठित कान फिल्म फेस्टिवल का हिस्सा बनी थी। यह उस वक्त ग्रैंड प्राइज के लिए नॉमिनेट हुई जब फेस्टिवल के बारे में ज्यादातर लोगों को पता नहीं था। ओवरसीज में फिल्म के 200 मिलियन से ज्यादा टिकट्स बिके थे। 2012 में टाइम मैगजीन ने फिल्म को ‘ऑल टाइम 100 ग्रेटेस्ट फिल्म्स’ की लिस्ट में जगह दी थी। फिल्म की कहानी राज रघुनाथ (राज कपूर) के इर्द-गिर्द है जो मां को संभालने के लिए क्रिमिनल गैंग जॉइन कर लेता है। हालांकि, जब उसे रीता (नरगिस) से प्यार होता है तो वह खुद में बदलाव कोशिश करता है।
दो बीघा जमीन (1953)
बलराज साहनी, निरुपा रॉय, नाजिर हुसैन, जगदीप, मीना कुमारी जैसे कलाकारों से सजी इस फिल्म को बेस्ट फीचर फिल्म के लिए ऑल इंडिया सर्टिफिकेट ऑफ मेरिट से सम्मानित किया गया था। यह पहली भारतीय फिल्म थी जिसने कान फिल्म फेस्टिवल में इंटरनैशनल प्राइज जीता और यह पहली फिल्म थी जिसने फिल्मफेयर बेस्ट फिल्म अवॉर्ड हासिल किया। फिल्म की कहानी एक गरीब किसान शंभू महतो (बलराज साहनी) के इर्द-गिर्द है जो अपनी पत्नी पार्वती पारो (निरुपा रॉय) के साथ छोटे से गांव में रहता है। सूखा पड़ने के बाद वह कलकत्ता में रिक्शा चलाने लगता है। उसे अपनी जमीन बचाने के लिए कर्ज चुकाना होता है।
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बूट पॉलिश (1954)
कुमारी नाज, रतन कुमार, डेविड स्टारर यह फिल्म 1955 में कान फिल्म फेस्टिवल में गई और वहां नाज ने चाइल्ड ऐक्ट्रेस अवॉर्ड के लिए स्पेशल मेंशन जीता। इस क्लासिक फिल्म ने बेस्ट फिल्म का फिल्मफेयर अवॉर्ड भी अपने नाम किया। फिल्म की कहानी भाई-बहनों भोला (रतन कुमार) और बेलू (कुमारी नाज) पर केंद्रित है जिन्हें अपनी मां की मौत के बाद उनकी आंटी कमला देवी (चंदा) जबरन भीख मांगने वाला बना देती है। हालांकि, अंकल जॉन (डेविड अब्राहम) की मदद से बच्चे आंटी के खिलाफ जाकर सम्मानजनक जिंदगी जीते हैं।
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श्री 420 (1955)
राज कपूर, नरगिस, नादिरा स्टारर यह फिल्म 1955 की सबसे ज्यादा पैसे कमाने वाली भारतीय फिल्म थी। इसकी कहानी छोटे शहर के आदमी रणबीर राज (राज कपूर) के इर्द-गिर्द है जो नाम कमाने के लिए शहर आता है। यहां उसे विद्या (नरगिस) से प्यार हो जाता है। शहरी दुनिया उसे फ्रॉड बनना सिखा देती है। माया (नादिरा) जोड़-तोड़ की कोशिश करके रणबीर के लिए चीजें मुश्किल कर देती है।
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प्यासा (1957)
गुरु दत्त, वहीदा रहमान, माला सिन्हा, जॉनी वाकर जैसे सितारों से सजी इस फिल्म का साइट ऐंड साउंड क्रिटिक्स में 160वां स्थान है। इसे महान फिल्मों में से एक माना जाता है। यही नहीं, टाइम मैगजीन ने इसे 100 सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में से एक बताया है। यह एक कवि की कहानी है जो मतलबी दुनिया में अपना स्थान बनाने के लिए संघर्ष करता है क्योंकि कोई भी उसकी कविताओं को छापना नहीं चाहता है। वह प्यार और पहचान के लिए भी संघर्ष करता है। वह प्रॉस्टिट्यूट गुलाबो (वहीदा रहमान) के प्यार में पड़ जाता है जो न सिर्फ उसके प्यार बल्कि उसकी कविताओं के भी प्यार में होती है।
नया दौर (1957)
दिलीप कुमार, वैजयंती माला, अजीत, जीवन, जॉनी वाकर की इस फिल्म ने आमिर खान की ‘लगान’ को इंस्पायर किया। इस फिल्म के लिए दिलीप कुमार ने बेस्ट ऐक्टर का फिल्मफेयर अवॉर्ड जीता। फिल्म को बड़ी सफलता मिली और फिर यह तमिल में भी डब की गई। इसमें जमींदार सेठ जी (नाजिर हुसैन) अपने बिजनस को मॉडर्न करने की कोशिश करता है और पैसेंजर्स के लिए तांगा को बसों से रिप्लेस करता है। शंकर (दिलीप कुमार) जो कि तांगे से अपना जीवनयापन करता है, उसे चैलेंज करता है।
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मधुमती (1958)
दिलीप कुमार, वैजयंती माला, प्राण, जॉनी वाकर की इस फिल्म की कहानी पुनर्जन्म पर आधारित है। फिल्म ने 9 फिल्मफेयर अवॉर्ड जीते। यही नहीं, हिंदी में बेस्ट फीचर फिल्म का नैशनल फिल्म अवॉर्ड भी हासिल किया। फिल्म में युवा इंजिनियर देविंदर (दिलीप कुमार) रेलवे स्टेशन की ओर निकलता है और उसी दौरान भूस्खलन से उसका रास्ता बाधित हो जाता है। वह एक हवेली में रुकता है जहां उसे अपनापन लगता है। यहां उसे अपने पुनर्जन्म की कहानी पता चलती है।
चलती का नाम गाड़ी (1958)
फिल्म में तीन भाई मनमोहन शर्मा (किशोर कुमार), ब्रजमोहन शर्मा (अशोक कुमार) और जगमोहन शर्मा (अनूप कुमार) महिलाओं से चिढ़ते हैं। हालांकि, इनमें से दो को प्यार हो जाता है। फिल्म में मधुबाला भी अहम रोल में हैं।
कागज के फूल (1959)
गुरु दत्त, वहीदा रहमान, कुमारी नाज, महमूद, जॉनी वाकर की यह फिल्म गुरु दत्त के ज्ञान मुखर्जी के साथ असोसिएशन से इंस्पायर है। इसकी कहानी मशहूर डायरेक्टर सुरेश सिन्हा (गुरु दत्त) के इर्द-गिर्द है जो शांति (वहीदा रहमान) में स्टार पोटेंशियल देखता है। वह फिल्म में उसे लीड ऐक्ट्रेस के तौर पर कास्ट करता है। हालांकि, किस्मत ऐसी बदलती है कि शांति सुपरस्टार बन जाती है और सुरेश के करियर को पतन का सामना करना पड़ता है।