बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व साल 2019 की लोकसभा की लड़ाई के लिए अभी से ही अपनी रणनीति बनाने में जुटा है| या यूं कहें कि तैयारी शीर्ष स्तर पर अभी से शुरु हो चुकी है| लेकिन बिहार की लड़ाई बड़ी ही दिलचस्प नजर आ रही है| सूबे में महागठबंधन की सरकार है और आंकड़े बताते हैं कि डेढ़ साल बीतने के बाद भी लोगों का भरोसा अभी इस गठबंधन से टूटा नहीं है| ऐसे में बीजेपी को जरुरत थी कि बिहार में किसी ऐसे मुद्दे को उठाए जिसका सीधा असर सरकार और राज्य की जनता पर पड़े| संयोगवश वो मुद्दा हाथ भी लग गया| बिहार बीजेपी के बड़े नेता और पूर्व उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी ने महागठबंधन के बड़े धड़े लालू प्रसाद की दुखती रग पर हाथ डाला| पहले से ही भ्रष्टाचार के आरोपों में लिप्त लालू और उसके परिवार के खिलाफ सुशील मोदी ने भ्रष्टाचार को लेकर तबाड़तोड़ हमले किए|
बेनामी संपत्ति के खिलाफ जुटाए सबूत
बेनामी संपत्ति के मामलों में लालू प्रसाद और उनके परिवार के लोगों के खिलाफ ऐसे-ऐसे सबूत दिखाए जिससे लगा कि राज्य की राजनीति में कुछ बड़ी उथल-पुथल होगी| सच कहा जाए तो लालू की काट खोजने में लगी पार्टियों के लिए ये कोई छोटा मुद्दा नहीं था| लेकिन सुशील मोदी जैसे कद्दावर नेता ने आरोपों को दम दिखाया तो जरुर लेकिन कहीं न कहीं वो पार्टी लेवल पर पिछड़ते नजर आए|
शीर्ष नेतृत्व का साथ नहीं!
मतलब जिस संजीदगी से लालू के खिलाफ राज्य बीजेपी या केंद्रीय बीजेपी को सुशील मोदी के पीछे खड़ा होना चाहिए,उसमें निश्चित ही अभाव दिखा| अब इसका कारण चाहे जो भी हो,राजनीतिक पंडित इसे विशुद्ध रुप से पार्टी की खेमेबाजी से जोड़ते हैं| ये जगजाहिर है कि नित्यानंद राय से पहले के पूर्व अध्यक्ष मंगल पांडेय सुशील मोदी की पसंद थे, तय सीमा से अधिक सुशील मोदी ने उनका कार्यकाल बढ़वाया भी| इसके पीछे सीधी मंशा थी पार्टी पर मंगल पांडेय की मदद से पूरा कंट्रोल| लेकिन शायद केंद्रीय नेतृत्व इस चीज को भांप रहा था, तभी तो नए अध्यक्ष की नियुक्ति में सुशील मोदी को तरजीह नहीं दी गई| और चुपचाप ऐसे आदमी को बैठा दिया गया जो उनके खेमे का नहीं था| अब बिहार की लड़ाई में सुशील मोदी अकेले दिखाई पड़ते हैं,नहीं तो क्या कारण था कि लालू के खिलाफ इतने बड़े सबूत दिखाने के बाद भी कोई राज्यस्तरीय नेता या केंद्रीय स्तर का नेता खुलकर सुशील मोदी के साथ नहीं आया|
शत्रुघ्न के खिलाफ खोला मोर्चा
लालू के खिलाफ ताजा मामले में किसी बड़े नेता का साथ नहीं मिलना उल्टे पार्टी के सांसद शत्रुघ्न सिन्हा से राजनीतिक जंग कहीं न कहीं सुशील मोदी के कमजोर राजनीतिक प्रभाव की ओर ही इशारा करता है| हालांकि शीर्ष नेतृत्व ने शत्रुघ्न सिन्हा से हुए ताजा बयानबाजी को ज्यादा तवज्जो नहीं दी, लेकिन जहां लालू के खिलाफ सवाल हो, और पार्टी का कोई नेता ही सुशील मोदी की काट करे और केंद्रीय नेतृत्व चुप रहे, कुछ न कुछ दाल में काला होने का अंदेशा जरुर देता है|
बीजेपी की पुरानी परंपरा
जरा इतिहास के पन्नों को भी पलटकर देखते हैं ‘पार्टी विद ए डिफरेंस’ का नारा देने वाली बीजेपी सही में ऐसे मामलों में डिफरेंट नजर आती है| किस नेता को किस समय साइडलाइन करना है इस मामले में पार्टी की कोई सानी नहीं| हो सकता है सुशील मोदी के लिए ऐसी बेरुखी पार्टी लाइन के हिसाब से ही हो| सुशील मोदी बिहार बीजेपी के कोई आज के नेता नहीं हैं उनका बिहार में बीजेपी की जड़ें जमाने में बहुत बड़ा योगदान रहा है| वो नब्बे के दशक की राजनीति, जब बिहार की राजनीति लालू प्रसाद के सिवाए किसी को जानती तक नहीं थी उस दौर में भी अकेले दम पर सुशील मोदी ने पार्टी का झंडा लहराया,सरकारी शोषण सहा,पुलिसिया जुल्म सहे| साल 1995 में मोदी बीजेपी विधानमंडल के मुख्य सचेतक निवार्चित हुए| साल 2004 में बीजेपी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बने| पार्टी में उनकी कार्यकुशलता और जनता के बीच पहुंच की वजह से वो 2005 में बिहार बीजेपी के अध्यक्ष चुने गए| संघर्षों के बाद एक वक्त ऐसा भी आया जब सुशील मोदी बिहार के डिप्टी सीएम भी बने| उस दौर में भी उनकी टांग खींचने वालों की कमी नहीं थी,लेकिन सत्ता के आगे वो विक्षुब्ध खेमा अपनी बात नहीं उठा सका|
सुशील मोदी को तवज्जो नहीं!
सवाल ये उठता है कि क्या बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व लालू के खिलाफ सुशील मोदी के हमले को ज्यादा तवज्जो नहीं देना चाहता? या फिर सुशील मोदी का साथ ना देकर ये दर्शाना चाहता है कि पार्टी किसी भी नेता को जरुरत से ज्यादा महत्व नहीं देना चाहती! हालांकि लालू के खिलाफ ताजा हमले में फायदा तो बीजेपी का ही नजर आ रहा है लेकिन पार्टी शायद आगामी विधानसभा चुनाव को भी ध्यान में रखकर किसी दूसरे नेता की तलाश में जुटी है| साल 2015 विधानसभा चुनावों में पार्टी को मिली करारी हार को शायद बीजेपी पचा नहीं पा रही है और हो सकता है इस हार के लिए पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व सुशील मोदी को जिम्मेदार मानता हो! नहीं तो बिहार में भूचाल लाने वाले सुशील मोदी के आरोपों पर भी पार्टी की ठंडी प्रतिक्रिया राजनीतिक पंडितों के समझ के परे है!
कैसे पार लगेगी नैया?
बड़ा सवाल है कि बिहार के लिए ये बात इसलिए महत्वपूर्ण हो जाती है कारण कि यहां बीजेपी को नीतीश और लालू के खिलाफ लड़ाई के साथ-साथ यहां के जातीय समीकरण की भी काट करनी है| ऐसे में पार्टी की खेमेबाजी साल 2019 के लोकसभा चुनावों की उम्मीदों को कहीं पलीता ना लगा दे|