पटना में “रैली में रेला” पर वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र चौधरी का विचार- पढ़ें

by TrendingNews Desk
राजद

पहला अंश 

विचारधाराओं के अलग अलग रंग, उनकी संकीर्णताओं के अलग अलग रूप, हर पार्टी का नेता अलग अलग तरह का “पप्पू” और ज़ुबान तथा फोटोशॉप के मात्र हेरफेर से अलग अलग तरह का “फेंकू”; जुमले सिर्फ़ चुनाव में जीतने के लिए दिखाये गये झूठे सपने ही नहीं होते, चुनाव में जुमलेबाज़ों को पटख़नी देने के लिये पटना के गांधी मैदान में जुटाई गयी भीड़ का पिक्चराना जुमला भी होता है। जुमले अलग-अलग, लक्ष्य वही. एक तरफ़ दक्षिणपंथी जुमले, दूसरी तरफ़ समाजवादी जुमले ! बीच में हमेशा की तरह कभी आर, कभी पार होती मजबूर आवाम। हमेशा की तरह फिर से पुराने ही अंदाज़ में नया मंच सज रहा है, नये शब्दों के साथ पुराने नारे भज रहे हैं और फिर भी “आप” कह रहे हैं कि सब कुछ बदल रहा है ?

दूसरा अंश 

मूरख को समझावते,ज्ञान गांठी पड़ जाय

कोयरो होय न ऊजरो,सौ मन साबुन खाय

गांधी मैदान से लालू प्रसाद यादव कहते हैं कि नीतीश सहित एनडीए के ज़्याादतर नेता उनका प्रोडक्ट है। अगली महत्वपूर्ण बात कहते हैं कि अगर उनके दोनों बेटे नहीं होते,तो एक चर्चित पुल जो बनकर तैयार हो गया है,वह नहीं बनता, उनका पूरा भाषण स्वयं लालू के ईर्द-गिर्द ही घूमते हुए उनकी पूरी राजनीति यादव परिवार केन्द्रित दिखती है। जब तेजस्वी कहते हैं कि नीतीश को सत्ता का मोह है,तो वो इस बात को शायद नज़रअंदाज़ कर जाते हैं कि वो ख़ुद,उनकी मां और उनका भाई तेजप्रताप यादव उसी सत्ता के राजनीतिक प्रोडक्ट्स हैं। लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव अगर सत्ता नहीं,बल्कि सामाजिक-राजनीतिक क्रांति के सार्वकालिक वाहक होते,तो यक़ीन मानिये लालू के बाद राबड़ी बिहार की मुख्यमंत्री नहीं होतीं, मुलायम के बाद अखिलेश यादव उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री नहीं होते,बल्कि किसी दबे कुचले वर्ग से कोई प्रतिभाशाली और जुझारू कार्यकर्ता ही उन-उन प्रदेशों के मुख्यमंत्री होते ; बालिग होने पर लालू प्रसाद यादव का राजनीतिक वारिस तेजप्रताप और तेजस्वी नहीं होता,बल्कि सालों से आरजेडी का झोला उठाता/उठाती कोई ऐसा/ऐसी युवा कार्यकर्ता होता/होती,जिसकी रगों में सामाजिक बदलाव का सियासी उबाल होता।

पटना के गाँधी मैदान में रैली को लेकर उमड़ा जनसैलाब

सामाजिक क्रांति के अगुआ बताये जाते रहे लालू और मुलायम दोनों ही नेताओं में उनकी विचारधाराओं के विपरीत उनके पश्चगामी राजनीतिक व्यवहार दिखते हैं। दोनों ने अपने-अपने बेटों या भतीजों को ही आगे बढ़ाये हैं, राजनीतिक परिदृश्य में अगर लालू की बेटी मीसा भारती दिख भी जाती है,तो राजनीतिक रूप से अपने भाइयों से ज़्यादा परिपक्व दिखने के बावजूद उसे नेतृत्व नहीं सौंपा जाता हैैं। इसी तरह मुलायम की बहुयें सियासत में लायी जाने के बावजूद सामाजवादी राजनीति की शोभा ही ज़्यादा बनती दिखती हैं। ऐसे में इन सामाजिक बदलावों के अग्रदूतों से क्या उम्मीद ?

इन दोनों की धर्मनिर्पेक्षता की खोखली बुनिया भी सांप्रदायिकता पर आधारित है। अल्पसंख्यकों के प्रति प्रेम की अंगड़ाई भी इनके बयानों से आगे नहीं बढ़ पाती है।इन दोनों ने अल्पसंख्यकों के नेतृत्व को फूलने फलने ही नहीं दिया। धर्मनिर्पेक्षता इनके बयानों से आगे तब शायद आगे बढ़ती दिखती,जब इनकी पार्टी की पहली क़तार में सही अर्थों में अल्पसंख्यक नेतृत्व होता। अल्पसंख्यक समुदाय से आने वाला आज़म ख़ान जैसा कट्टर नेता समाजवादी पार्टी में महिलाओं की तरह ही अल्पसंख्यकों वाली शोभा बनाकर ही रखे गये। अल्पसंख्यक समुदायों में तरक़्कीपसंद नौजवानों की कमी नहीं है।मगर कथित सामाजिक न्याय के इन दोनों नेताओं की दिक़्क़त ही यही रही है कि ये समाजाजिक न्याय का ऐसा समीकरण रचना चाहते रहे हैं,जिसमें हिन्दुओं की तरफ़ से एक जाति विशेष का वर्चस्व हो और अलपसंख्यकों की तरफ़ से सामने एक कट्टर चेहरा हो। ऐसे में बताइये कि आप पुरुषवादी और साम्प्रदायिक समाज की रचना में अप्रत्यक्ष योगदान दे रहे हैं या नहीं ? मोदी के नेतृत्व में कभी खोखली हो चुकी बीजेपी का हुंकार असल में इसी खोखले सामाजिक न्याय और सांप्रदायिकता के चारों तरफ़ लिपटी खोखली धर्मनिर्पेक्षता के ख़िलाफ़ एक प्रतिक्रियात्मक परिणाम है।

राजद की रैली में उमड़ी भीड़

बहुत अजीब सी बात है कि सामाजिक बदलाव की बयार की क़समें खाते नेताओं से सज़े गांधी मैदान के उस मंच से तेज़प्रताब शंख बजाते है और पगड़ी बांधते हुए कहते हैं, ‘यादव अगर पगड़ी नहीं बांधा,तो क्या बांधा’। जो लोग भी खालिस नारे के सहारे नहीं,बल्कि ज़मीनी स्तर पर सामाजिक बदलाव चाहते हैं,उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि जिस जाति से तेजप्रताप ताल्लुक रखते हैं,पिछले 30 सालों में वह जाति विशेष एक ब्राह्मणवादी जाति बन चुकी है। फिर भी मंच पर बैठे डी.राजा सहित तमाम नेता सामाजिक बदलाव को लेकर अपनी प्रतिबद्धता दोहराते हैं। ठहर चुकी इस राजनीतिक समझ की खोखली प्रतिबद्धता के मायने उन्हें शायद तीस साल पहले वाला ही मालूम हों,लेकिन उस प्रतिबद्धता के मायने बदल चुके हैं। इन नेताओं को चाहिए कि समाज के अंतिम छोर पर परेशान लोगों से मिलें और उनकी पीड़ा की पाठशाला में सामाजिक न्याय के बदले हुए मायने की क्लास करें और फिर सामंतवाद और ब्राह्मणवाद की चौखट की चौहद्दी को नये सिरे से नापे-समझें। इसके बाद राजनीति के वास्तविक धरातल पर आकर देश की असली तस्वीर पर जमी हुई धूल को देशव्यापी दौरों से उड़ाकर ज़मीनी नारे गढ़ें,ज़मीनी रणनीति बनायें और फिर इनक्लुसिव पॉलिटिक्स करें,वर्ना मंच सजते रहेंगे,धर्मनिर्पेक्षता की धुन में घुन लगता रहेगा, विचारों के पिटारे से शंख बजता रहेगा, जाति के नाम पर पगड़ी बंधती रहेगी,नेता गुदगुदाते रहेंगे, रैली में शामिल लोग हंसते रहेंगे,भीड़ जुटाने के खेल का तिलस्म सोशल मीडिया पर रचता और बिखरता रहेगा,खम ठोकते हर नये आकलन के साथ बीजेपी बढ़ती रहेगी, सरकार बदलती रहेगी, प्रगतिशीलता ऊंघती और बड़बड़ाती रहेगी और अफ़सोस कि इंटेलेक्चुअल के पास अब तो अवार्ड भी नहीं बचे हैं कि वो अवार्ड वापसी का माहौल बनाकर नया दबाव बनाते रहेंगे ?

 

(वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र चौधरी के फेसबुक वॉल से साभार )