हिंदी फिल्म जगत के पहले सुपरस्टार माने जाने वाले दिलीप कुमार ने हमारे सिनेमा देखने के तरीके को बदल दिया। शानदार अदायगी के साथ पात्रों को अपना और विश्वसनीय बनाने की उनकी क्षमता ने उन्हें बाकी अभिनेताओं की भीड़ से बाहर खड़ा कर दिया। कुमार का 58 वर्षीय लंबा और शानदार करियर उनको फिल्म जगत का वह रत्न बनाता है जिसकी जगह कोई नहीं ले सकता।
वास्तव में, बॉलीवुड पर ‘खानों’ के राज से बहुत पहले, एक और खान था, जिसने दर्शकों के दिलों में एक स्थायी स्थान लेते हुए ट्रेजेडी किंग बनकर राज किया।
मोहम्मद यूसुफ खानका जन्म 11 दिसंबर,1922 को पेशावर (अब पाकिस्तान में) में एक फल व्यापारी लाला गुलाम सरवर के घर हुआ था। सरवर परिवार के स्वामित्व वाले बागपेशावर और देवलाली (नासिक) में थे, इसलिए यूसुफ की स्कूली शिक्षा देवलाली के बार्न्स स्कूल में हुई।
फिल्म के शौकीन और उनके प्रशंसक पहले से ही जानते होंगे कि ‘दिलीप कुमार’ वास्तव में उनका मंच नाम था। हालाकि,बहुत लोग इस तथ्य से अवगत नहीं होंगे कि कुमार एक नई पहचान के साथ भारतीय फिल्म उद्योग में प्रवेश करने का फैसला क्यों किया?
1970 के दशक में महेंद्र कौल के साथ एक साक्षात्कार में, दिलीप ने बहुत स्पष्ट रूप से खुलासा किया कि नाम परिवर्तन केवल इसलिए हुआ क्योंकि वह अपने पिता की पिटाई से डरते थे।
कुमार ने इंटरव्यू में कहा, “पिता के डर से मैंने ये नाम रखा, मैं पिता की पिटाई से डरता था इसलिए मैंने यह नाम रखा।”
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“मेरे पिता फिल्मों और शो बिजनेस के सख्त खिलाफ थे। उनके अच्छे दोस्त दीवान बशेश्वरनाथ जिनके बेटे पृथ्वीराज कपूर भी इंडस्ट्री में एक अभिनेता थे। वह अक्सर बशेश्वरनाथ से शिकायत करते हुए कहते थे, ‘तुमने क्या किया? आपका युवा और स्वस्थ बेटा यह काम क्यों कर रहा है?” यह कुमार की असाधारण प्रतिभा और अभिनय पर पकड़ थी कि उनके पिता ने अंततः अपने बेटे के करियर की पसंद को स्वीकार कर लिया।
दिलीप कुमार को उनकी पहली फिल्म, ज्वार भाटा, 1944 में मिली। यह उनके लिए एक आदर्श लॉन्च-पैड बन गया क्योंकि उन्हें कई निर्माताओं और निर्देशकों ने देखा था।1952 तक, वह जुगनू, शहीद, मेला, आन, दाग, आरज़ू और दीदार जैसी फिल्में करके छा चुके थे। बस आठ साल में दिलीप एक शानदार करियर के साथ एक स्टार बन गए थे।
लेकिन ये सिर्फ शुरुआत थी,उसके बाद के वर्षों में, दिलीप साहब ने हमें एक से बढ़कर एक फिल्मेंदीं, जैसे –देवदास (1955), आज़ाद (1955), नया दौर (1957), मधुमती (1958), पैघम (1959), कोहिनूर (1960), मुगल-ए-आज़म (1960), और गंगा जमुना (1961)। यदि दिलीप एक अभिनेता के रूप में अपने पहले दशक में एक स्टार थे, तो अगला दशक एक सुपरस्टार के रूप में आया।
आज भले ही दिलीप साहब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन फिल्म जगत पर उनकी छाप अमिट है।
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